
मुंबई से राजस्थान का सफर लंबा था, लेकिन मीरा के लिए ये सिर्फ दूरी का नहीं, बल्कि एक पूरी ज़िंदगी का फासला था।
ट्रेन का शोर, स्टेशन के हवलदार की सीटी, चाय के ठेले से आती अदरक वाली मीठी खुशबू… सब कुछ एक अजीब-सी बेख़याली में गुजर रहा था।
उसके हाथ में एक पुरानी, पीली पड़ चुकी चाबी थी — लकड़ी का हैंडल और पीतल पर पुराने ज़माने की डिज़ाइन बनी हुई।
साथ में एक ब्राउन लिफ़ाफ़ा, जिस पर वकील का नाम लिखा था।
दिमाग में एक हफ़्ते पहले की बात घूम गई —
वकील ने फाइल बंद करते हुए कहा था,
"तुम्हारी दादी के नाम की चांदनी हवेली अब तुम्हारे नाम हो गई है। 150 साल पुरानी… अब वहाँ कोई नहीं रहता। संभलकर रहना, मीरा। वहाँ के बारे में लोग अजीब बातें करते हैं।"
मीरा ने बस सिर हिला दिया था। न उसने वकील की आँखों में हल्की-सी चिंता को समझा, न समझना चाहा।
अब, राजस्थान की मिट्टी पर कदम रखते हुए, हवा में एक अलग ही भारीपन था — जैसे ज़मीन ने भी अपने कुछ राज़ छुपा रखे हों।
टैक्सी ड्राइवर, सफेद पगड़ी और पतले चेहरे वाला, पीछे मुड़कर बोला,
"मैडम, गाँव आने वाला है। हवेली जंगल के पार है। सूरज ढलने से पहले पहुँच जाएंगे।"
मीरा ने खिड़की से बाहर देखा — सुनहरे गेहूं के खेत हवा में लहराते हुए, दूर-दूर तक फैले। कभी-कभी ऊँचे नीम के पेड़ नज़र आते, जिनके नीचे रंग-बिरंगी साड़ी में औरतें बैठी बातें कर रही थीं।
हवा का एक झोंका आया, मिट्टी की खुशबू के साथ। और उसमें कुछ और भी था… जैसे रात का फूल खिलने की महक — जबकि अभी दिन था।
गाँव के बीचों-बीच, मिट्टी के घरों का एक झुंड था। बच्चे नंगे पाँव दौड़ रहे थे, एक साइकिल वाला दूध ले जा रहा था, और चबूतरे पर दो बुज़ुर्ग हुक्का पी रहे थे।
सब कुछ आम लग रहा था, लेकिन कुछ नज़रें अजीब थीं — जैसे एक औरत ने मीरा की टैक्सी देखी और हल्की-सी मुस्कुराई, जैसे उसने उसे पहचान लिया हो।
टैक्सी जंगल के रास्ते में मुड़ गई।
सूरज अब धीमे-धीमे नरम हो रहा था, पीली धूप नारंगी में बदल रही थी।
पाँच मिनट बाद जंगल ख़त्म हुआ — और सामने था चांदनी हवेली का दरवाज़ा।
लोहे का बड़ा-सा गेट, जिसकी पेंट उतर चुकी थी, जगह-जगह जंग लगा था।
ऊपर एक पुराना लोहे का निशान — दो तलवारों के बीच आधा चाँद।
ड्राइवर ने गाड़ी रोकी और बोला,
"यहीं से आपको पैदल जाना होगा, मैडम। गाड़ी अंदर नहीं ले जाते।"
मीरा ने चाबी कसकर पकड़ी, एक गहरी सांस ली।
गेट खोलते ही लोहे की घिसने की आवाज़ आई, जैसे सालों बाद किसी ने इसे छुआ हो।
अंदर कदम रखते ही हवा बदल गई।
ये वो ठंडक थी जो आम हवा में नहीं होती — जैसे पूरी जगह किसी साए में लिपटी हो।
सामने एक बड़ा आँगन था, उसके आगे एक लंबा हॉल, जिसमें गहरा अँधेरा था।
हॉल में कदम रखते ही उसका पहला सामना हुआ एक आइने से।
सात फुट ऊँचा, काले और चाँदी के नक़्क़ाशीदार फ्रेम वाला। शीशा बिल्कुल साफ़ नहीं, थोड़ा धुंधला — जैसे अँधेरों में देख रहा हो।
मीरा ने खुद को देखा — सफर की थोड़ी थकान, आँखों में थोड़ी जिज्ञासा। उसने अपने रिफ़्लेक्शन को हल्की-सी मुस्कान दी।
और तभी एक अजीब बात हुई — जैसे ही वो एक कदम आगे बढ़ी, उसका रिफ़्लेक्शन एक पल के लिए रुक गया।
बस एक पल… लेकिन उस पल में उसका दिल तेज़ धड़कने लगा।
वो सूटकेस लेकर आगे बढ़ गई, सोचा शायद ये थकान का असर है।
उसका कमरा बड़ा था, दीवार पर पुराना वॉलपेपर, एक तरफ पीतल का दिया, और बिस्तर पर सफेद चादर।
खिड़की से बाहर गाँव का एक हिस्सा दिख रहा था — दूर से तबला और शहनाई की आवाज़ आ रही थी। शायद किसी की शादी थी।
मीरा ने पानी पिया और बिस्तर पर लेट गई। थकान के बावजूद नींद तुरंत नहीं आई।
उसके दिमाग में वही आइना घूम रहा था — और उसका वो रुकना।
रात करीब 11 बजे, प्यास लगी तो वो पानी लेने हॉल में आई।
वहीं आइना… लेकिन इस बार उसका दिल एकदम तेज़ हो गया।
रिफ़्लेक्शन में एक आदमी था।
राजपूताना पोशाक में, लंबाई कम से कम 6 फुट, कंधे पर तलवार टंगी हुई।
चेहरे पर गहरी आँखें, हल्की-सी मुस्कान — जैसे वो उसे पहचानता हो।
मीरा ने पलटकर देखा — हॉल खाली था।
दुबारा आइने में देखा — बस वही।
वो एक कदम आगे बढ़ी, हाथ से आइना छुआ।
ठंडक उसकी उँगलियों से कलाई तक फैल गई।
उसका दिल अब सामान्य नहीं धड़क रहा था।
मीरा ने अपनी नज़रें आइने से नहीं हटाईं।
रिफ़्लेक्शन में वो आदमी भी एक कदम आगे बढ़ा… मगर सामने हवा ख़ामोश थी।
उसकी आँखों में एक अजीब-सा बुलावा था — "बस एक कदम… और।"
दिल ने उसकी बात मान ली।
जैसे ही उँगलियों ने शीशे की ठंडक को छुआ, उसकी सांसों में एक गरम लहर दौड़ गई।
उस पल, आइना हल्की रोशनी से चमका — जैसे चांदनी अंदर उतर आई हो।
और फिर… सब कुछ अँधेरा।
जब आँख खुली, वो अपने कमरे में थी।
लेकिन हवा में खुशबू थी — मिट्टी, चंदन और कुछ और… जैसे कोई अभी-अभी यहाँ से गुज़रा हो।
शाम को, हवेली के पुराने हिस्से में घूमते हुए, मीरा उस हॉल में पहुँची जहाँ बड़े-बुज़ुर्गों की तस्वीरें लगी थीं।
हॉल खाली था… लेकिन आइने में… वो था।
इस बार उसकी उंगली शीशे पर लगी हुई थी, जैसे वो भी छूने आया हो।
मीरा की सांस अटक गई। वो और पास गई।
धीरे से बोली,
"कौन हो तुम?"
आदमी के होंठों पर हल्की मुस्कान आई।
उसकी आवाज़ सीधे मीरा के कानों में गूंजी —
"मैं वही हूँ… जिसका तुम जनमों से इंतज़ार कर रही हो।"
मीरा के होंठ थोड़े खुले, दिल की धड़कन तेज़ हो गई।
और तभी पीछे से अम्मा की पुकार आई —
"मीरा…!"
पलभर को उसने मुड़कर देखा।
जब दोबारा आइने की तरफ देखा — आदमी गायब था।
लेकिन इस बार… आइने की सतह पर होंठों का हल्का-सा निशान था।

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